Ads

Type Here to Get Search Results !

Shri AshtaDash Bhuja Mata , Sarthal Kishtwar

0

AshtaDashBhuja Mata Sarthal Kishtwar

किश्तवाड के सांस्कृतिक जीवन का सबसे बडा केंद्र है यह तीर्थस्थल।
लेखिका : मनीषा मनू
 
AshtaDashBhuja Mata Sarthal Kishtwar

 
   जिला किश्तवाड के लोगों की इष्ट देवी व सदियों से किश्तवाड के इतिहास की साक्षी रही अष्टादशभुजा देवी सरथल माता के मंदिर में नवरात्रों के चलते श्रद्धालुओं की भारी भीड देखने को मिल रही है। भक्तगण मां के दर्शनों के लिए रोज सरथल गांव पहुंच रहे है। यूं तो इस मंदिर में हर रोज भक्तों का आना जाना लगा ही रहता है लेकिन नवरात्रों में विशेष रूप से भक्तगण मां के दरबार में हाजिरी लगाने और माथा टेकने आते है।

ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि:
किश्तवाड से करीब 30 किलोमीटर दूर खूबसूरत पहाडियों के बीच बसे सरथल माता मंदिर का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। मान्यताऔं के अनुसार महर्षि कश्यप ने अपने हिमालय भ्रमण के दौरान किश्तवाड क्षेत्र में भी निवास किया था जो उस समय चंद्रभागा के नाम से प्रसिद्ध था। कश्यप श्रषि के निवास के कारण चंद्रभागा क्षेत्र से कश्यपनिवास नाम पड गया जो बाद में बिगडते बिगडते किश्तवाड बना। कश्यप मुनि ने किश्तवाड के लोगों को धर्म और भक्ति के मार्ग पर ले जाने के लिए अपने तपोबल से आदिशक्ति मां जगदम्बा की एक दिव्य मूर्ति प्रकट की और मंत्रोच्चार से मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की। अष्टादश भुजा माता का विग्रह रखने के लिए मंदिर की स्थापना भी की गई। जिस स्थान पर मूर्ति स्थापना के लिए मंदिर बनाया गया उस स्थान को कालीगड कहा जाने लगा। जो आज गालीगड के नाम से जाना जाता है। तब से कुछ कारणवश माता की यह दिव्य मूर्ति कई बार विलुप्त होती गई और मिलती गई। लेकिन आखिरी बार 1650 ई० में महाराजा महासिंह के शासन काल में एक ग्वाले को गाय चराते हुए मिली थी। महाराजा महासिंह ने ही सरथल गांव में मंदिर का निर्माण कर के मूर्ती स्थापना की। तब से लेकर आज तक यह पवित्र तीर्थस्थल किश्तवाड के लोगो की आस्था के साथ साथ सांस्कृतिक जीवन का भी महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

सांस्कृतिक धरोहर: आस्था के साथ साथ जीवन के लगभग हर मांगलिक अवसरों पर भी सरथल माता का यह मंदिर अहम भूमिका निभाता है। शादी निश्चित होते ही पहला निमंत्रण पत्र माता को चढाया जाता है। वर वधू के वस्त्र या आभूषण खरीदने से पहले मां के लिए खरीदारी की जाती है। शादी पूर्ण होने के बाद सबसे पहले सकुटुंब माता का आशीर्वाद लिया जाता है। बच्चों का मुंडन भी यही किया जाता है। किश्तवाड जिले में बच्चों के मुंडन को भी शादी व यज्ञोपवीत की ही तरह बहुत बडे स्तर पर आयोजित किया जाता है। दो से तीन दिनों तक चलने वाले मुंडन संस्कार में अपने परिवार , सगे सबंधियो रिश्तेदारों व मित्रों के लेकर गाजे बाजै के साथ सरथल मंदिर जाते है।वहां दूसरे दिन भगवती माता का हवन व यज्ञ किया जाता है। हवन के पश्चात बच्चे के बाल उतारे जाते है।पारंपरिक वाद्ययंत्रों बजंतरी, ढोंस , नरसिंह की पहाडी लोकधुनों पर खूब नाचना गाना होता है। इसके बाद सबको भोजन कराया जाता है। यहाँ पशुबलि का विधान है।

पर्यटन की है संभावनाएं: मचैल माता के मंदिर की तरह इस तीर्थस्थल की प्रसिद्धि भी बढ रही है। मचैल यात्रा के दौरान मचैल दर्शनों के बाद यात्री सरथल में भी दर्शनों के लिए हर साल आने लगे है।लेकिन सुविधाओं के नजरिए से यह इलाका अभी बहुत पिछडा है। सरकार की अनदेखी के शिकार इस तीर्थस्थल की ओर अगर जरा सा भी ध्यान दिया जाता तो यह स्थान आस्था के साथ साथ पर्यटन का भी प्रमुख केंद्र बन सकता है।
Tags

Post a Comment

0 Comments

Top Post Ad

Below Post Ad